डॉ.आलोक रंजन|
जब पुनमको चुरा खस्यो== सृजक =मेरो मनको चुचुरा खस्यो ।पथराई आँखों के भीतर वह भाव ढूँढता फिरता है ,मृदा शिला में भी जीवन का आधार ढूँढता रहता है |
फूलको धारले नै रेट्न थालेपछिकवि हो या हो कृषक ,मरुभूमि हो या हो मिथक ,उनको मनको छुरा खस्यो ।निर्विकार को आकार-बंध,शिल्पी की निजता है |
पोको पारेर राखेको ठाउँबाटमेरे ही गीतों की धुन पर केशव तुमने रास रचाया ,आज अचानक कुरा खस्यो ।मेरे ही कपास के सूतों से तुमने कृष्णा की लाज बचाया |
सपनाको चखेवा खेलाउँदै थिएँउसी चीर के आँचल को बेच –बेच मैंने ब्याज चुकाया ,विपनाको झ्वाम्म च्याखुरा खस्यो ।बुरा न मानो माधव ! तुमने मित्रता धर्म नहीं निभाया|
फुलाउँदा फुलाउँदै मायाको फूल
बसन्तमै मनको आँकुरा खस्यो ।
भमराहरु झुमुन् भन्थेँ वरिपरितुम स्रष्टा हो ,तुम हो पूजित ,माखन पर अधिकार तुम्हारा ,मनको चाकामा माकुरा खस्यो ।तुम संबल हो ,कभी शेष को ,और कभी भूधर को क्षत्र बनाया |
राधामाता का लहू पीकर हमने मुरलीधर ,गोवर्धन को मूर्त उतारा, रुक्मिणी र मीराहरु नसोच्दैमनमा अचानक मथुरा खस्यो ।भूख से मेरा बालक तरसे ,तुमने छप्पन भोग लगाया ?
अग्लिदै थिएँ आकासको हिमालमाना तुम लीलाधर हो,अंतर्यामी! जग भी तेरी माया है ,आफनै मनको टाकुरा खस्यो ।तेरे दीप-पात्र में जलता मेरा लहू क्यों है ,गलती मेरी काया है? तुम हो स्रष्टा ,लक्ष्मीपति तुम ,महलों के अधिकारी हो ,मैं हूँ सृजक धान्य-धन का नहीं ,बस सपनों का व्यापारी हूँ | कभी सूर बन अन्ध कूप से मैंने तेरा ही गान किया ,मीरा बन कभी ,मुरारी!,हलाहल का पान किया | ठाकुर!बाल-सखा के लाए धान्य ,जिसने स्वयं ब्रह्म को तृप्त किया ,उसे उगाने हेतु हमने ,ह्रदय चीर अपने लहू कोष को रिक्त किया | समर मध्य जब पृथा –पुत्र क्लीव सा मोह –पाश में भरमाया ,क्षात्र धर्म रक्षित करने हित,मोह –बंध खंडित करने हित – मोहन! तुमने धर्म-नीति रक्षा हेतु ,भारत को विश्वरूप था दिखलाया|सरसों के पीले फूलों में ,उसे देखता रहता मैं नित | भूमंडल को अपनी इच्छा से तुमने युगों-युगों अगिनत बार बसाया है ,वासुदेव!गीली मिट्टी में तुम्हे,बसाने शिल्पी ने ,अविरल चाक घुमाया है ! सृष्टि का संहार-सृजन तुम्हारी माया के आधीन,निजता का संचार मात्र ,मिट्टी को सिंचित करता मेरा लहू–स्वेद,तपने की अग्नि- भूखे-बच्चों का करुण आत्र| == सृजक और स्रष्टा(द्वितीय आयाम ) == == सुवामा == सुवामा शक्ति स्वयं ,या किसी अपर शक्ति के आधीन ?हे राम! जनक-सुता का सार्वभौम से यह प्रश्न अति प्राचीन ! नारी मात्र कौशल्या हो या स्वयं ब्रम्ह की छाया?युगों-युगों से जलती आयी वैदेही की काया ! मायापति को मूर्त रूप देती जिस नारी की कोख |आश्रय होता उसका स्वयं निविड़ वाटिका अशोक ! रावण के कृत्यों का अबला क्यों अपराध सहे?अग्निसाक्षी निरपराध क्यों अग्नि-देव के चरण गहे? विलासी इंद्र के अपकर्म से अहिल्या आज भी स्तब्ध है |शील न लुट जाये ,इस भय से मानवी शिला बनी निःशब्द है| लक्ष्मण रेखा के आगे लांछा की ज्वाला है ,भीतर है धर्म प्रलाप, जलती केवल नारी ,भीतर –बाहर उस रेखा करती विह्वल रौद्र अलाप| भरी सभा में अग्नि-प्रगटा धर्मराज का व्यसन मोल चुकाती है,पुरुषोत्तम की मर्यादा हित भू-कन्या भूमि का आश्रय पाती है| कुरुभूमि में पार्थ प्रिय गाण्डीव जिसकी प्रत्यंचा थी पांचाली के केश,भीम सना था रक्त सुज्जजित ,पांचाली से अधिक उसे था कुल –मर्यादा का क्लेश | पांडू-सुतों को सुयोधन ,अगर समर्पित कर देता पांच गाँव |उन्हें सताती याद कहाँ पांचाली के ह्रदय के हरे घाव | रुधिर पिला कर पालन करती लघुता को सुवरिष्ट,तब स्रष्टा पूजे जाते हैं |सृजक जब सितकेशी हो ,प्रवया हो ,साकल्य छीन अंचल का न्यास चुकाते हैं !