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तुलसीदास / परिचय

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/* रामचरितमानस की रचना */
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँध कर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा।
इधर पण्डितोंने पण्डितों ने और कोई उपाय न देख [[श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी]] सरस्वती जी को उस पुस्तकको देखनेकी पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीने सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर उस पर यह सम्मति लिख दी-
'''आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।'''<br>
'इस काशीरूपी आनन्दवनमें तुलसीदास चलता-फिरता तुलसीका पौधा है। उसकी कवितारूपी मञ्जरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्रीरामरूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।'
पण्डितों को इस पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तककी परीक्षाका पुस्तक की परीक्षा का एक उपाय और सोचा गया। भगवान्‌ [[विश्वनाथ]] के सामने सबसे ऊपर [[वेद]], उनके नीचे [[शास्त्र]], शास्त्रों के नीचे [[पुराण]] और सबके नीचे [[रामचरितमानस]] रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगोंने लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदोंके वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो पण्डित लोग बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदासजीसे तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्तिसे भक्ति से उनका चरणोदक लिया।
==मृत्यु==