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सांकल ज्ञान की तौरत है गजराज यो धूम मचावत है |
अहिराज तुरंग कहूँ क्या कहूँ धमकावें तो मारने धावत है |
शिवदीन कहें बस क्या चलि हैं पल एक में आँख घुरावत है |
शुभ संतन का मन धन्य प्रभु नित गोविन्द का गुण गावत है ||

मानत ना मन मेरो कह्यो समझाय थक्यो अरे बार ही बारा |
थोरी ही बात में,भोग के सुख को, पावत है दुःख अपरम्पारा |
मन चंचल है हठ ठानी रह्यो प्रभु चीन्ह नहीं निज रूप पियारा |
शिवदीन सुने न हरी चरचा फिर कैसे तिरे भव सिन्धु की धारा ||

चेत तो चेत चितार मना यह काम न आवे कोऊ सुत दारा |
शिवदीन फंस्यो जिनके फंद में वही आन चिता पे करे मुख कारा |
प्रीत नहीं कोई रीत नहीं सब देख के प्रेत कहे परिवारा |
प्रीतम तो परमेश्वर है, मन तू जग से करता न किनारा ||
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