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लाल्टू

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उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा।
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा।
 
पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था
 
पहाड़-१
 
पहाड़ को कठोर मत समझो
पहाड़ को नोचने पर
पहाड़ के अाँसू बह अाते हैं
सड़कें करवट बदल
चलते-चलते रुक जाती हैं
 
पहाड़ को
दूर से देखते हो तो
पहाड़ ऊँचा दिखता है
 
करीब आओ
पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा
पहाड़ के ज़ख्मी सीने में
रिसते धब्बे देख
चीखो मत
 
पहाड़ को नंगा करते वक्त
तुमने सोचा न था
पहाड़ के जिस्म में भी
छिपे रहस्य हैं।
 
पहाड़-२
 
इसलिए अब
अकेली चट्टान को
पहाड़ मत समझो
 
पहाड़ तो पूरी भीड़ है
उसकी धड़कनें
अलग-अलग गति से
बढ़ती-घटती रहती हैं
 
अकेले पहाड़ का जमाना
बीत गया
अब हर ओर
पहाड़ ही पहाड़ हैं।
 
पहाड़-३
 
पहाड़ों पर रहने वाले लोग
पहाड़ों को पसंद नहीं करते
पहाड़ों के साथ
हँस लेते हैं
रो लेते हैं
सोचते हैं
पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई
बाकी भी गुज़र जाएगी।
 
(मूल रचना: १९८८; एक झील थी बर्फ की - आधार प्रकाशन, १९९०)
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