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बड़ी लम्बी राह / अज्ञेय

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और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !
बड़ी लम्बी राह : आँख-कोरों से लगा कर
ओठ के नीचे-मुड़े कोने तलक, तेज़ाब-आँकी
एक बाँकी रेख :
‘नहीं जिस से अधिक लम्बी, अमिट या कि अमोघ
 
विधि की लेख न देखो लौट कर पीछे
भृकुटि मत कसो, मत दो ओट चेहरे को,
चोट से मत बचो; अनुभव डँसे;
न पूछो और कौन पड़ाव अब कब आएगा?
 
तेज़ाब जब चुक जाएगा-थम जाएँगे, सब यन्त्र; कारोबार
अपने-आप सब रुक जाएगा!
 
'''नयी दिल्ली (वाक् कार्यालय, सुन्दर नगर), 22 सितम्बर, 1958'''
</poem>
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