Changes

रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 3

5,954 bytes added, 17:37, 7 जुलाई 2013
}}
{{KKPageNavigation
|पीछे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 42|आगे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 4|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"}}<poem>‘‘पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू। ‘‘जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको ?पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही हैअग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है। ‘‘नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी। ‘‘यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है, रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ ? ‘‘वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।’’रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,‘‘कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।’’ यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर। डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,‘‘तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ? ‘‘क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,माता के तन का मल, अपूत है वह तो।तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो। ‘‘मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँसारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ? ‘‘है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओमन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था। ‘‘सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,पय-पान कराती उर से लगा कर। ‘‘मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,पय का पहला आहार न दे पायीं तुम। ‘‘उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में,तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ? ‘‘क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,असली माता के पास भाग्य ने भेजा। ‘‘अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में</poem>{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 2|आगे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 4
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
8,152
edits