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सुबह / मधुप मोहता

1,659 bytes removed, 12:01, 12 अक्टूबर 2012
<poem>
मैं तुम्हें सोचता हूं,सुबह तुम्हारी ख़ुशबुओं काअनगिनत और बातेंजिन्हेंतय करती मेला सजाती है ज़िदगी,एक महासागर तुम्हारी आंखों की उस मदहोशनमी,शाम की गुमनामी के नामरिस-रिसकर मेरी जिसकी उदास हवा कलम मेंउतर आती है,तुम्हारे गीतदम तोड़ते हैं एक के बाद एकमुझे लगातार देती रहती है,ख़ामोशी में।परिभाषा।
यादें तुम्हारी कांपती, ख़ामोश उंगलियांलाल गुलाबों कीबिखेरती रहती हैं मेरे बालों को, औरगर्मियों की तन्हा रात की किसी धुन गुज़रे हुए दिन कीयादेंउस ख़ूबसूरत चांद की, औरउन तमाम ख़ूबसूरत चांद की, औरतुम और मैंबेवजह ताकतेरोशनियों कीजगमगाहट को।शब्द, जो कभी मैंनेतुम्हारे कानों में हौले से कहे थे, बेतहाशा,लहराकर, बेफिक्र मस्त लम्हों मेंएक नज़्म बन जाते हैंदूर से चलकर आती आवाज़ें चुपचापकिसी नई सुबह के सपने मेंढल पिघल जाती हैं।
मेरे पांव धंसते हैं धीरे-धीरेमेरी आंखें बंद करने भर से,समय मेंतमाम दुनिया का वजूदमिट जाता है जैसे,हौले-हौले बरसते हैंयह सुबह,नादान लम्हेंतुम्हारा मेला नहीं,एक अनूठे नृत्य तो क्या है ? बरसती रहो, अपनी संवेदनाओं में,मुझे ढूंढ़ोमैं भुला देता हूंभूल जाओ, सभी शाश्वत सत्यदूर से आती हुई आवाज़ो कोएक पल की समाधि में।मेरे सिरहाने बैठो,और चुपचाप,ख़यालो में सिमट जाओ।
कहीं, सुना है मैंने,
अंतिम सांस तक निभनेवाले
प्रेम के विषय में,
भोले-भाले गीत भी सुने हैं, कई बार
मैंने पढ़ी है,
असमंजस की ख़मोशी के घर लौटने
की प्रतीक्षा में व्यग्र आंखों में थमी
नाराज़गी
जब मैं तुम्हें सोचता हूं,
अनगिनत और बातों को,
चांदनी मुझे अपनी गोद में समेट
नाराज़गी।
जब मैं तुम्हें सोचता हूं,
अनगिनत और बातों को,
चांदनी मुझे अपनी गोद में समेट लेती है,
मैं आंखें बंद कर लेता हूं
ख़ुद को भूलने के लिए, और
शहर में लगातार चलती रहती हैं,
हलचलें।
</Poem>
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