भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=अंग...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=अंगारों पर शबनम /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
'''दिल में उतरने की कोशिश'''
हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है । लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -
“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”
इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी
मिलते हैं । गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।
आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं । यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है । वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं । अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है । आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है । ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।
मुझे पूरा भरोसा है, हिन्दी के सुधी समीक्षक इस आवाज़ को नज़र अंदाज़ करने की स्थिति में नहीं होंगे । उनकी रचना किसी ऊपरी वाह-वाही की मोहताज़ नहीं, क्योंकि दिल की कमान से निकले उनके अशआर सीधे दिल में उतरने की कोशिश हैं । ‘अंगारों पर शबनम’ की ग़ज़लें सारे देश में लोकप्रिय होंगी, यह मेरा दृढ़ अनुमान है ।
'''प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी'''
24, वेदव्यास कॉलानी नं. 2,
रतलाम (म.प्र.) 457001 फोन-07412-239477
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=अंगारों पर शबनम /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
'''दिल में उतरने की कोशिश'''
हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है । लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -
“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”
इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी
मिलते हैं । गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।
आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं । यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है । वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं । अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है । आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है । ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।
मुझे पूरा भरोसा है, हिन्दी के सुधी समीक्षक इस आवाज़ को नज़र अंदाज़ करने की स्थिति में नहीं होंगे । उनकी रचना किसी ऊपरी वाह-वाही की मोहताज़ नहीं, क्योंकि दिल की कमान से निकले उनके अशआर सीधे दिल में उतरने की कोशिश हैं । ‘अंगारों पर शबनम’ की ग़ज़लें सारे देश में लोकप्रिय होंगी, यह मेरा दृढ़ अनुमान है ।
'''प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी'''
24, वेदव्यास कॉलानी नं. 2,
रतलाम (म.प्र.) 457001 फोन-07412-239477