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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
अजब क़िस्से सुनाते फिर रहे हैं
हक़ीक़त को छुपाते फिर रहे हैं

ज़रा पापों का पश्चाताप देखो
वो अब गंगा नहाते फिर रहे हैं

कि ख़ुद भी दूध के धोए न होंगे
हँसी सबकी उड़ाते फिर रहे हैं

बदन की झुर्रियाँ सच बोल देंगी
कहाँ ज़्ाुल्फ़ें रंगाते फिर रहे हैं

अगर मुझसे नहीं है काम कोई
तो फिर क्यों दुम हिलाते फिर रहे हैं

बुझे दीपक जलाने थे जिन्हें वो
जले दीपक बुझाते फिर रहे हैं

वो ज़ालिम दुश्मनी पर है उतारू
हमीं यारी निभाते फिर रहे हैं

‘अकेला’ ने सचाई बोल दी है
बहुत से भनभनाते फिर रहे हैं
</poem>
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