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17:52, 9 अक्टूबर 2007 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।<br>
हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥<br>
'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।<br>
सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥<br><br>
ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।<br>
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥<br>
ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।<br>
एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥<br><br>