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<poem>
एक थे नव्वाब,
फ़ारस से मंगाये मंगाए थे गुलाब।बड़ी बाड़ी में लगायेलगाएदेशी पौधे भी उगायेउगाएरखे माली , कई नौकर
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था।
गोद पर तरतीब की।
क्यारियां सुन्दर बनी
चमन में फ़ैली फैली घनी।फ़ूलों फूलों के पौधे वहांवहाँ
लग रहे थे खुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
आसमानी, सब्ज, फ़ीरोज फ़िरोज सफ़ेद,
जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
फ़लों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
चटकती कलियां, निकलती म्रदुल मृदुल गन्ध,
लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
साफ़ राह, सरा दानों ओर,
दूर तक फ़ैले फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह।
कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोबोदाबरोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऎंठकर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंगोआबरंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता इतरा रहा है केपीटलिस्ट!कितनों को तू ने तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर व’ वो पीछे को भागभागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऎसी ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूं हूँ मौलिकतू है बकरा, मै हूं हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुल्बुलाबुलबुलातू ने तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फ़िर फिर रूप पैराशूट ले।विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूं।हूँ।काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूं।हूँ।
उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
और लम्बी कहानी-
सामने ला, कर लाकर मुझे बेंड़ा
देख कैंडा
तीर से खीचाअ खींचा धनुष मैं राम का।
काम का-
पड़ा कन्धे पर हूं हूँ हल बलराम का।सुबह का सुरज हूं सूरज हूँ मैं ही
चांद मैं ही शाम का।
कलजुगी मै मैं ढाल
नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
सारी दुनियां दुनिया तोलती गल्ला
मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
रूप मेरा, मै चमकता
गोला मेरा ही बमकता।
लगाता हूं हूँ पार मैं ही
डुबाता मझधार मैं ही।
डब्बे का मैं ही नमूना
पान मैं ही, मैं ही चूना
मैं कुकुरमुत्ता हूंहूँ,पर बेन्जाइन(Bengoin) वैसे
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
जैसे फ़्रायड और लीटन।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
जरूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
सच समझ जैसे रकीब
लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब
इकबगल, तब बना वीणा।
मन्द्र होकर कभी निकला
कभी बनकर ध्वनि छिणा।छीणा।
मैं पुरूष और मैं ही अबला।
मै म्रदंग मृदंग और मैं ही तबला।
चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लीरिक लिरिक मुझसे ही बनेसंस्क्रतसंस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जनेमन्त्र, गजलेगज़लें, गीत,गीत। मुझसे ही हुए शैदाजीते है, फ़िर फिर मरते है, फ़िर फिर होते है पैदा।
वायलिन मुझसे बजा
बेन्जो मुझसे सजा।
नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।
नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
रस-ही-रस मैं हो रहा