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|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
कम से कम इक बार तो मेरी चले
दस दफ़ा गर आपकी मर्ज़ी चले

कितना मीठा बोलता है मुझसे वो
जान ही ले ले अगर उसकी चले

सर से ऊपर जा रही हैं क़ीमतें
कैसे घर की रोटी-तरकारी चले

ले तमंचे और गुण्डे साथ में
ये कहाँ गाँधी के अनुगामी चले

तब समझ लेना कि आया इन्क़लाब
शेर से लड़ने को जब बकरी चले

चाहते सब हैं, रहें हरदम जवाँ
वक़्त के आगे भला किसकी चले

दस क़दम मैं बढ़ चुका उसकी तरफ़
दो क़दम मेरी तरफ़ वो भी चले

ऐ ‘अकेला’ ये दिया बुझना ही था
कब तलक बिन तेल की बाती चले
</poem>
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