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|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
धर्म भी रंगने लगे हैं कैसे रंगों में
आस्थाएँ हो गयीं तब्दील जंगों में

पस्त दिखते हौसले सामर्थ्यवानों के
पर्वतारोहण के सपने हैं अपंगों में

लेना-देना हो चुका है, क्या रहा बाक़ी
फँस गयी फ़ाइल हमारी किन अड़ंगों में

सबको है दरकार उत्तेजक कथाओं की
अब किसी की रूचि नहीं प्रेरक-प्रसंगों में

वाह री नेतागिरी, सौ लानतें तुझ पर
सैकड़ों मरवा दिए जातीय दंगों में

क्या तमाशा है, विधायक बन गया वो ही
जिसकी गिनती शह्र के लुच्चों-लफंगों में

हर समय बस देश के उद्धार की बातें
ऐ ‘अकेला’ पड़ गये हो किन कुसंगों में
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