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Kavita Kosh से
कमज़ोर आवाज़ को पहचान की हद तक
उठाने का हल्ला था
लोक-परलोक की धुन बहुत बजती थी हवा में
सच्चा शोक बिना तर्क के सोने नहीं देता था
अकाल में मृत्यु के अलावा पूर्व जन्म का कोई फल नहीं दिखता था
पर समय की कोई सांस्कृतिक सियासत थी
कि दो अकेले भी दोस्त हो जाते थे
भले ही समूह झगड़ रहे हों
अब आवाज़ें बुलंद और सड़कें चौड़ी हैं
रुलाई की जगह गुस्सा है
सिसकने की जगह हल्ला नहीं हल्ला-बोल है
शोक ख़ानदानी बदले में बदल गए हैं
माथे
धर्म और जाति के लाभ से झुके हैं
नए-नए प्रकार के गुरूर असहमति को घृणा में
घृणा को विचारधारा में बदल रहे हैं
समूहों में दोस्ती हो रही है
खुले विचारों वाले अकेले व्यक्तियों के ख़िलाफ़।
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