मेरा बदन हो गया पत्थर का
'सोनजुही-से' हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गए
हमारे दिन फीके हो गए
नक़्शा बदल गया सारे घर का।
मेरे लिएगीत जितना महत्त्वपूर्ण है उतनी कविता भी, लेकिन यहाँ पर गीत और गीतात्मक कविता (जो गीत के फ़्रेम में जड़ी होती है) के सूक्ष्म विभाजन को भी रेखांकित करना चाहता हूँ। जहा~म तक कविता की रचना-प्रक्रिया में 'लय' का प्रश्न है, उसे मैं किसी हद तक सार्थक मानता हूँ, लेकिन इसी 'लय' को जब गीत की रचना-प्रक्रिया के साथ जोड़ दिया जाता है तो ऐसा लगता है जैसे गीत और कविता की रचना-प्रक्रिया में कोई अन्तर ही नहीं है। 'लय' कविता कीरचना-प्रक्रिया में अन्तिम स्थिति हो सकती है लेकिन गीत लिखने के लिए 'केवल लय' ही पर्याप्त नहीं है। 'लय' के उद्भूत क्षण को और आगे बढ़ाकर जब रचनाकार उसी लय को उसी की एक और पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज से जोड़ देता है तो उस लय की सपाटता मे एक विशेष घुमाव आ जाता है और लय रिवाल्विंग हो जाती है। यदि प्राइमरी के बच्चों को गिनती और पहाड़े रटते हुए आपने सुना हो तो आप गिनती की सपाट लय को पहाड़े की घुमावदार (रिवाल्विंग) लय से बड़ी आसानी से पृथक कर सकते हैं — और यह सपाट लय, घुमावदार लय तभी हो पाती है, जब उसी लय की पार्श्ववर्ती अतिरिक्त गूँज को उसमें पतली रस्सी की तरह भाँज दिया जाता है। हाँ ! कुछ गीतकार आलोचक इसे भी संगीतात्मकता का फ़तवा देना चाहेंगे, लेकिन वे इतना अवश्य ध्यान में रख लें कि लयात्मकता किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसमें भी संगीतात्मकता होती है। लय संगीत की कन्या है, चाहे यह संगीत (शास्त्रीय संगीत से अलग) जीवन, जगत, यंत्र आदि का वह संगीत ही क्यों न हो, जो आज के उन्मुक्त वातावरण में व्याप्त है। संगीत की ध्वनि-तरंगों से आप लय को किसी भी प्रकार बचा नहीं सकते। धूप की शहतीर में बिछलते अणु की तरह लय में भी संगीत की ध्वनि-तरंगें (वेव्ज) तैरती रहती हैं और उन्हीं के आधार पर कविता, गद्य से, और गीत कविता से पृथक होता है। बहरहाल, इसी अतिरिक्त गूँज के साथ-साथ जब रचनाकार की समाहित सवेदना को उदघाटित करने वाले शब्द घूमने लगते हैं तब गीत अपनी शक़्ल बनाने लगता है और यहीं से गीत की रचना-प्रक्रिया का वह अन्तिम क्षण प्रारम्भ होता है जो गीत की समाप्ति तक गतिशील रहता है।