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घृणा का गानरँग गुलाल के
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रचनाकार: [[अज्ञेयकुमार रवीन्द्र]]
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<div style="text-align:left;overflow:auto;height:450px;border:none;"><poem>
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, रँग गुलाल केसुनो घृणा का गान !और फाग के बोल सुहानेबुनें इन्हीं से संवत्सर के ताने-बाने
तुम, जो भाई को अछूत कह, ऋतु-प्रसंग यह मंगलमय होवस्त्र बचाकर भागे !हर प्रकार सेतुम, जो बहनें छोड़ बिलखती दूर रहें दुख-दर्द-दलिद्दरबढ़े जा रहे आगे !रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान—सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !सदा द्वार से
तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, ऊँची दुकानों मेंउन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों मेंतुम, जो रक्त चूस ठठरी कभी किसी को देते हो जलदान—सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !कष्ट न दें जाने-अनजाने
तुम, जो महलों में बैठे अग्नि-पर्व यहदे सकते हो आदेश,रंगपर्व यह सच्चा होवे'मरने दो बच्चे, ले आओ पाप-ताप सबखींच पकड़कर केश !नहीं देख सकते निर्धन मन के घर दो मुट्ठी धान—सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !-साँसों के यह धोवे
तुम, जो पाकर शक्ति कलम में हमें न व्यापेंहर लेने की प्राण-'निश्शक्तों’ की हत्या में कर सकते हो अभिमान,जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'—सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !कभी स्वार्थ के कोई बहाने
तुम, जो मन्दिर में वेदी पर यह मौसम हैडाल रहे हो फूलराग-द्वेष के परे नेह काऔर इधर कहते जाते होहाँ, विदेह होने का'जीवन क्या है? धूल !'यह पर्व देह कातुम जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान— साँस हमारीसुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !इस असली सुख को पहचाने
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