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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
बढ़ते उपचारों का युग है
फिर भी बीमारों का युग है

गै़रों की सत्ता से बद्तर
अपनी सरकारों का युग है

कर्तव्यों का भान किसे हो
ये तो अधिकारों का युग है

हो पाता सच नहीं उजागर
कैसा अख़बारों का युग है

हम उल्फ़त की बात करेंगे
माना तलवारों का युग है

घर-घर, आँगन-आँगन उठतीं
पक्की दीवारों का युग है

क्रय-विक्रय में सिमटा जीवन
मंडी-बाज़ारों का युग है

बच कर रहना ज़रा ‘अकेला’
झूठों-मक्कारों का युग है
</poem>
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