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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
बस हवाओं ने इजाज़त उसको दी इतनी ही थी
क्या कहूँ मैं उस दिये में रौशनी इतनी ही थी

आके बैठे भी नहीं हो और जाने भी लगे
क्यों चले आये जो मुझसे दुश्मनी इतनी ही थी

दिल ये भर आया था जाते वक़्त जब उसने कहा-
‘ये समझ लेना हमारी दोस्ती इतनी ही थी’

ज़ालिमों ने कितनी बेदर्दी से मारा है उसे
और तुम कहते हो उसकी ज़िन्दगी इतनी ही थी

दुनिया वालों ने ज़रा झड़पा तो पीछे हट गये
ये नये मजनूं हैं इनकी आशिक़ी इतनी ही थी

मुझसे ही क्या राम से भी जलने वाले कम न थे
आज से पहले भी दुनिया सरफिरी इतनी ही थी

कल चढ़ी थी हद से ज़्यादा आज फिर क्यों होश है
जितनी पी है आज मैंने कल भी पी इतनी ही थी

बेतुके भद्दे लतीफ़े, कर्णप्रिय तुकबंदियाँ
मंच वालों की नज़र में शायरी इतनी ही थी

मैं हँसा तो अपना ग़ुस्सा भूलकर वो हँस पड़ा
ऐ ‘अकेला’ क्या उसे नाराज़गी इतनी ही थी
</poem>
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