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Kavita Kosh से
उसके असुरक्षित तन में
मैंने ढूँढा था प्यार
पर किसी विजयी भेड़िये भेड़िए की तरह मैं
अब पुरुष पहले से भिन्न था
फुसफुसा रही थी मुझसे सटकर
और रो रही थी वह
मेरे लिए शर्म से अड़ गड़ जाने को
यह काफ़ी था
वह स्त्री है
फिर भी मेरे प्रति व्यक्त करे आभार
मैं पुरुष हू`ंहूँ
अतः उससे मेरा कोमल हो व्यवहार
उसके प्रति जन्म गया था अब मेरे मन में प्यार
रूप बदल कर स्त्री जैसे
और स्त्री ज्यों पुरुष हो गई
कुछ लगे ऎसेऐसे
हे भगवान!
कितने झुक गए हैं स्त्री के कन्धे
मेरी उंगलियाँ उँगलियाँ धँस जाती हैं
शरीर में उसके भूखे, नंगे
और आँखें उस अनजाने लिंग की
यह जानकर धमक उठीं
फिर उन अंधमुंदी अधमुंदी आँखों में
कोहरा-सा छाया
सुर्ख़ अलाव की तेज़ अगन का