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कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
 
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खडा खड़ा हुआ हूं हूँ दुनिया के इस मेले में,हर एक यहां पर एक भुलाने भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्कहक्का-बक्कबक्का, भौंचक्का सा,आ गया कंहाकहाँ, क्या करुं यहांकरूँ यहाँ, जाऊं जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूंसकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
 
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
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