|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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{{KKCatKavita}}<poem>लीक पर वे चलें जिनके<br>चरण दुर्बल और हारे हैं,<br>हमें तो जो हमारी यात्रा से बने<br>ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।<br><br>हैं।
साक्षी हों राह रोके खड़े<br>पीले बाँस के झुरमुट,<br>कि उनमें गा रही है जो हवा<br>उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं ।<br><br>हैं।
शेष जो भी हैं-<br>वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;<br>गर्व से आकाश थामे खड़े<br>ताड़ के ये पेड़,<br>हिलती क्षितिज की झालरें;<br>झूमती हर डाल पर बैठी<br>फलों से मारती<br>खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;<br>गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,<br>वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,<br>नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे<br>शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;<br>सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास<br>जो संकल्प हममें<br>बस उसी के ही सहारें हैं ।<br><br>हैं।
लीक पर वें चलें जिनके<br>चरण दुर्बल और हारे हैं,<br>हमें तो जो हमारी यात्रा से बने<br>ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।<br><br>