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|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
}}
{{KKCatKavita}}<poem>अक्सर एक गन्ध<br>मेरे पास से गुज़र जाती है,<br>अक्सर एक नदी<br>मेरे सामने भर जाती है,<br>अक्सर एक नाव<br>आकर तट से टकराती है,<br>अक्सर एक लीक<br>दूर पार से बुलाती है ।<br>मैं जहाँ होता हूँ<br>वहीं पर बैठ जाता हूँ,<br>अक्सर एक प्रतिमा<br>धूल में बन जाती है ।<br><br>
अक्सर चाँद जेब में<br>पड़ा हुआ मिलता है,<br>सूरज को गिलहरी<br>पेड़ पर बैठी खाती है,<br>अक्सर दुनिया<br>मटर का दाना हो जाती है,<br>एक हथेली पर<br>पूरी बस जाती है ।<br>मैं जहाँ होता हूँ<br>वहाँ से उठ जाता हूँ,<br>अक्सर रात चींटी-सी<br>रेंगती हुई आती है ।<br><br>
अक्सर एक हँसी<br>ठंडी हवा-सी चलती है,<br>अक्सर एक दृष्टि<br>कनटोप-सा लगाती है,<br>अक्सर एक बात<br>पर्वत-सी खड़ी होती है,<br>अक्सर एक ख़ामोशी<br>मुझे कपड़े पहनाती है ।<br>मैं जहाँ होता हूँ<br>वहाँ से चल पड़ता हूँ,<br>अक्सर एक व्यथा<br>यात्रा बन जाती है ।<br><br>
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