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उस क़ादरे-मुतलक़ से बग़ावत भी बहुत की / ‘अना’ क़ासमी
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06:44, 13 मई 2013
<poem>
उस क़ादरे-मुतलक़ से बग़ावत भी बहुत की
इस ख़ाक के
ज़र्रे
पुतले
ने जसारत भी बहुत की
इस दिल ने अदा कर दिया हक़ होने का अपने
वीरेन्द्र खरे अकेला
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