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ससुरारै में निदिया सताये रेएक बार भोले शंकर से बोलीं हँस कर पार्वती,जी भर के कबहुँ ना सोय पाय रे'चलो जरा विचरण कर आये,धरती पर कैलाशपती!मोरी अक्कल चरै का चलि जात हौविस्मित थे शंकर कि उमा को बैठे-ठाले क्या सूझा,ससुरारै कुछ कारण होगा अवश्य मन ही मन में बावरी सी हुइ गईअपने, बूझा!
सैंया बोले गैया को चारा डालना'वह अवंतिका पुरी तुम्हारी,बसी हुई शिप्रा तट पर,मैं भइया सुन्यो निंदिया की झोंक मेंवैद्यनाथ तुम,सोमेश्वर तुम, विश्वनाथ, हे शिव शंकर!छोटे देउर को नाँद बहिन नर्मदा विनत चरण में बिठा दियोअर्घ्य लिये, ओंकारेश्वर,और आय के बिछावन पे सोय गईजल धारे सारी सरितायें, प्रभु, अभिषेक हेतु तत्पर!
बहू बछिया गुवाले को सौंप देइधर बहिन गंगा के तट पर देखें कैसा है जीवन,मैं बिटिया सुन्यो निंदिया की झोंक में,तो ननदिया को पहनायमुना के तटपर चल देखें मुरली-उढ़ाय के,धर का वृन्दावन!आपने कंठ बहनों से लगाय मिल-भेंट ली,और जाय के गुवाले मिलने को दे दिहिनव्याकुल हुआ हृदय कैलाश पती!'फिर आय के बिछावन पे सोय गईशिव शंकर से कह बैठीं अनमनी हुई सी देवि सती!
मैरी दवा की पुड़िया बहू लाय देजान रहे थे शंभु कि जनों के दुख से जुडी जगत- जननी,हवाजीव-गुड़िया सुन्यो नींद जगत के खुमार मेंहित- साधन को चल पडती मंगल करणी!लाई रबड़ की बबुइया ढूँढ खोज के'जैसी इच्छा,आगे बढ़ के ससुर जी पे उछाल दीचलो प्रिये, आओ नंदी पर बैठो तुम,और आय के बिछावन पे सोय गईपंथ सुगम हो देवि, तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं हम!'
पहने कपड़े बरैठिन के दै दियोअटकाया डमरू त्रिशूल में ऊपर लटका ली झोली,कह दीजो हिसाब पूरो हुइ गयो!वेष बदल कर निकल पडे, शंकर की वाणी यह बोली -गहने कपड़े सुन्यो 'जहाँ जहाँ मैं आधी नींद मेंवहाँ वहाँ मुझसे अभिन्न सहचारिणि तुम,उनके बक्से से जेवर निकाल लैहरसिद्धि,और जोड़े धराऊ में लपेट केधुबिनिया को पुटलिया पकड़ाय दीऔर लेट के बिछावन पे सोय गईअंबा, कुमारिका, भाव तुम्हारे हैं अनगिन!
हँडिया दूध की अँगीठी पे चढ़ाय दे,'ग्राम-मगर के हर मन्दिर में नाम रूप नव- नव धरती!'थोड़ो ईंधन दै हिम शिखरों के आँच भी बढ़ाय देमहादेव यों कहें,'अपर्णा हेमवती!चार मुट्ठी भर झोंक दियो कोयलामेकल सुता और कावेरी,याद कर रहीं तुम्हें सतत,हाँडी गोरस की धरी वापे ढाँक केऔर आ के बिछावन पे सोय गईयहाँ तुम्हारा मन व्याकुल हो उसी प्रेमवश हुआ विवश!'
जाने कैसे मैं लेटी औंघाय गई,दूध उबलउतरे ऊँचे हिम-उबल सारा जराय गाशिखरों से रम्य तलहटी में आये,सारा हाँडी का रंग करियाय गाघन तरुओं की हरीतिमा में प्रीतिपूर्वक बिलमाये!मैंने टंकी में चुपके डुबाय दीआगे बढते जन-जीवन को देख-देख कर हरषाते,और जाके बिछावन पे सोय गईनंदी पर माँ उमा विराजें, शिव डमरू को खनकाते!
मारे नींद के कुछू न समझ आय हँसा देख कर एक पथिक,'देखो रेकलियुग की माया,ससुरारै मे बावली सी पति धरती पर पैदल चलता,चढी हुई ऊपर जाया!'रुकीं उमा उतरीं नंदी से, बोलीं,'बैठो परमेश्वर!मैं पैदल ही भली कि कोई जन उपहास न पाये कर!' 'इच्छा पूरी होय रईतुम्हारी, 'शिव ने मान लिया झट से,नंदी पर चढ गये सहज ही अपने गजपट को साधे!आगे आगे चले जा रहे इस जन संकुल धरती पर,खेत और खलिहान, कार्य के उपक्रम में सब नारी नर! उँगली उनकी ओर उठा कर दिखा रहा था एक जना,कोमल नारी धरती पर, मुस्टंड बैल पर बैठ तना!''देख लिया, सुन लिया?' खिन्न वे उतरे नंदी खडा रहा,उधर संकुचित पार्वती ने सुना कि जो कुछ कहा गया! 'हम दोनों चढ चलें चलो, अब इसमें कुछ अन्यथा नहीं ।शंकर झोली टाँगे आगे फिर जग -जननि विराज रहीं!दोनों को ले मुदित हृदय से मंथर गति चलता नंदी,हरे खेत सजते धरती पर बजती चैन भरी बंसी! 'कैसे निर्दय चढ बैठे हैं,स्वस्थ सबल दोनों प्राणी,बूढा बैल ढो रहा बोझा,उसकी पीर नहीं जानी!'ह-सुन कर बढ गये लोग,हतबुद्धि उमा औ' शंभु खडे,कान हिलाता वृषभ ताकता दोनो के मुख, मौन धरे! 'चलो, चलो रे नंदी, पैदल साथ साथ चलते हैं हम,संभव है इससे ही समाधान पा जाये जन का मन!'जब शंकर से उस दिन बोलीं आदि शक्ति माँ धूमवती,चलो,जरा चल कर तो देखें कैसी है अब यह धरती! हा,हा हँसते लोग मिल गये उन्हें पंथ चलते-चलते,पुष्ट बैल है साथ देख ले. पर दोनों पैदल चलते,जड मति का ऐसा उदाहरण, और कहीं देखा है क्या?'वे तो चलते बने किन्तु, रह गये शिवा - शिव चक्कर खा! 'कैसे भी तो चैन नहीं दुनिया को,देखा पार्वतीअच्छा था उस कजरी वन में परम शान्ति से तुम रहतीं!''सबकी अपनी-अपनी मति,क्यों सोच हो रहा देव, तुम्हें,उनको चैन कहाँ जो सबमें केवल त्रुटियाँ ही ढूँढे! दुनिया है यह यहाँ नहीं प्रतिबन्ध किसी की जिह्वा पर,चुभती बातें कहते ज्यों ही पा जाते कोई अवसर!अज्ञानी हैं नाथ, इन्हें कहने दो,जो भी ये समझें,निरुद्विग्न रह वही करें हम, जो कि स्वयं को उचित लगे! कभी बुद्धि निर्मल होगी जो छलमाया में भरमाई!इनकी शुभ वृत्तियाँ जगाने मैं,हिमगिरि से चल आई,ये अबोध अनजान निरे,दो क्षमा -दान हे परमेश्वर!जागें सद्- विवेक वर दे दो विषपायी हे,शिवशंकर! 'भोले शंकर से बोलीं परमेश्वरि दुर्गा महाव्रती!अपनी कल्याणी करुणा से सिंचित करतीं यह जगती,