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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">आदिवासीखुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
<divstyle="text-align: center;">रचनाकार: [[मदन कश्यपत्रिलोचन]]
</div>
<poemdiv style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">ठण्डे लोहे-सा अपना कन्धा ज़रा झुकाओहमें उस पर पाँव रख कर लम्बी छलाँग लगानी हैमुल्क को आगे ले जाना हैबाज़ार चहक रहा हैऔर हमारी बेचैन आकाँक्षाओं खुले तुम्हारे लिए हृदय के साथ-साथ हमारा आयतन भी बढ़ रहा हैद्वारतुम तो कुछ घटो रास्ते से हटोअपरिचित पास आओ
तुम्हारी स्त्रियाँ कपड़े क्यों पहनती हैंआँखों में सशंक जिज्ञासावे तो ऐसी ही अच्छी लगती हैंमिक्ति कहाँ, है अभी कुहासातुम्हारे बच्चे स्कूल क्यों जाते जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं(इसमें धर्मान्तरण स्तम्भ शेष भय की साजिश तो नहीं)परिभाषाहिलो-मिलो फिर एक डाल केतुम तो अनपढ़ ही अच्छे लगते होखिलो फूल-से, मत अलगाओ
बस, अपना यह जंगल नदी पहाड़ हमें दे दोसबमें अपनेपन की मायाहम इन्हें निचोड़ कर देश को आगे ले जाएँगेदुनिया अपने पन में अपनी तरक्की का मादल बजाएँगेऔर यदि बचे रहे तो तुम्हें भी नाचने-गाने के लिए बुलाएँगे देश के लिए हम इतना सब कर रहे हैंतुम इतना भी नहीं कर सकते ! तुम्हारी भाषा अब गन्दी हो गई हैउसमें विचार आ गए हैंतुम्हारी सँस्कृति पथ-भ्रष्ट हो गई हैउसमें हथियार आ गए हैंख़तरनाक होती जा रही हैं तुम्हारी बस्तियाँकेवल हमारी दया पर बसी नहीं रहना चाहतीं हमने तो बहुत पहले ही सब कुछ तय कर दिया थातुम्हें बोलना नहीं गाना आना चाहिएपढ़ना नहीं नाचना आना चाहिएसोचना नहीं डरना आना चाहिएअब तुम्हीं कभी-कभी भटक जाते हो तुम्हें कौन-सी बानी बोलनी हैकौन-सा धर्म अपनाना हैकिस बस्ती में रहना हैकब कहाँ चले जाना हैयह तय करने का अधिकार तुम्हें नहीं है तुम तो बस, जो हम कहते हैं वह करोबेकार झमेले में मत पड़ोहम से डरो हमारी भाषा से डरोहमारी सँस्कृति से डरो हमारे राष्ट्र से डरो !जीवन आया </poemdiv>
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