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रचनाकार: [[मदन कश्यपप्रियदर्शन]]
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सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना ।जो सबसे पहले पहचान लिए जाते हैं,वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैंवे छोटे और मामूली लोग होते हैंवे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह ।असली आततायी मीठा बोलते हैंबोलने से पहले तोलते हैंहाथों में दस्ताने चढ़ाते हैंखंजर में सोना मढ़ाते हैंउन पर अँगुलियों के निशान मिटाते हैंऔर बिल्कुल उस वक़्त जब तुम तो उनसे पूरी तरह बेख़बर या आश्वस्तअपना अगला क़दम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैंतुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए होयह ख़ुदक़ुशी है, अख़बार चीख़ते हैंनहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है।कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है।आततायी बसवादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा । पाँच आततायी से लड़ना आसान नहीं होताइसके कई ख़तरे होते हैंपकड़ लिया जाना, जो पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना--कुछ भी हो सकता है ।ये छोटे ख़तरे नहीं हैं ।लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है ।आततायी से लड़ते-लड़तेहम कहते भी हो जाते हैं आततायी ।वह करोबेकार झमेले में मत पड़ोमारा जाता है, शहीद हो जाता हैहम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता । छह आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरो हमारी भाषा से डरोडरता है ?हमारी सँस्कृति इन्साफ़ से।जब इन्साफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है ।ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता हैकि इन्साफ़ छुपा रहे ।उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैंकि इन्साफ़ की तरह पहचानी जाएँकि चन्द राहतें पैदा करती रहें इन्साफ़ की उम्मीदऔर चलता रहे उसका खेल ।वह जुर्म भी करे तो इन्साफ़ मालूम होऔरजब उसे मारा जाए तो वह इन्साफ़ नहीं जुर्म लगे । सात मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकताहर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविताआततायी से डरो हमारे राष्ट्र से डरो !मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहींलेकिन कोशिश भी करूँ तो आततायी के मारे जाने परकोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता ।मुझे माफ़ करें ।
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