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ऋणि उतर गये गहरे भीतर ही भीतरकुछ अस्त-व्यस्त, साक्षी बनते लंबे पथ की हलचल केचिन्ताकुल-सा लंकापति, मानव आ खडा होगया मय-तनया के उद्भव से त्रेता तक के क्रम, ध्यानस्थ चेतना में चित्रों से झलकेसम्मुख!यह सप्त द्वीपवाली ऋतंभरा धरती"मैंनें जो वचन दिया था, प्रिये, तुम्हें तब, आलोक-तिमिर के वसन बदलता अंबर इस अंतराल में बहती जीवन-धारा, देवों दैत्यों दनुजों में बढ़ते अंतरअब आज तुम्हें देने आया हूँ वह सुख!"
इक-दूजे का अनहित करने की घातें"क्या वचन? नई यह बात! और मैं दुखी कहो किस दुख से?"पटरानी हूँ, कितने ही युद्ध पराजय-जय पति की बातेंअति प्रिय,फिर वंचित मैं किस सुख से?"वैभव-क्षमता-शस्त्रों की होड़ लगाये"तुम वंचित रहीं प्रिये, छल-बल करते अपना प्रभुत्व दर्शातेसीता को ले आया हूँ सचमुच!वे दिव लोकों उसको अशोक-वन में अपनी पैठ बढातेरख कर, ये पातालों को अपना केन्द्र बनाते, अपने मानों को ही आदर्श बनाकर, आरोपों की उन पर बौछार लगातेकर रहा तुम्हारा प्रिय कुछ!"
रच पृष्ठभूमि भूगोल खड़ा हो जाताविस्मय-विमूढ़ रानी के मन में आशंकायें जागीं-"वह तो वन में थी, इतिहास करवटें लेता आगे बढता, निर्वासन मेंपति का साथ निभाती?"जीवन की सहज धार कुण्ठित हो जातीघटना-क्रम से अवगत कर बोला, आदर्श जहाँ पर व्यवहारों को छलता"तुम्हीं सम्हालो जाकर!उत्तर में देवों अति-वेदों के अनुमोदकव्यथित हृदय, संस्कृतिकरुणा-आदर्श-श्रेष्ठता का मद पाले, चलती थी अनबन असुर संस्कृतियों स्वर से, जिनके अधिपति भी थे सशक्त मतवालेउपवन भरती रो-रो कर!"
शस्त्रों-शास्त्रों के नव प्रयोग आश्रम में, आक्रोश जगा जाते असुरों के "मैं जाऊँ? अभी? अचानक? पहले मन में,तो स्थिर कर लूं!अधिकार-अबाध प्राप्त करने की तृष्णा, विष घोल रही थी उनके संघर्षण मेंआवेगों भरे हुये अंतस् मेंकुछ तो संयम धर लूँ!"आहत अत्याचारों से ऋषि-मुनि रहते"ओ, जब नित्य कर्म पर भी भय की परछाईंलंकापति, क्या कर डाला, बिन आगा-पीछा सोचे?तब मुक्ति हेतु ऋषियों ने युक्ति निकाली औ उनकी कठिन साधनाएं रँग लाईंपति- संरक्षण से हर लाये अपने विवेक को खो के!"
एकान्त अरण्य बने साक्षी उस तप के, जिसका फल, अन्त करे रक्षों के कुल काउत्साह भंग हो गया और कुछ उतर गया उसका मुख, चल रही निरन्तर क्रिया हवन- मंत्रों कुछ बोल न पाया रानी की आहुतियों का क्रम वहाँ अनवरत चलताबातों पर लगा गया चुप!रावण को सुन-गुन हुई "किसने जाना कि उसके वध कापिता तुम हो, कर रहे प्रबन्ध वहाँ ऋषियों के मंडल। तुम भी क्या उत्तर दोगे -उन्मत्त क्रोध से दौड पडा वह सत्वर, हो उठी वनों की अग्नि ज्वाल अति चंचल!पुत्री पर दोष लगाये तो किस-किस का मुँह पकडोगे?"
वह कठिन साधना ऋषि-मुनियों के तप की आ समा गईं थी मृदा-कलश के जल "उस पर अपवाद धरे कोई भ्रम मे, या दुर्बल क्षण में,कितने यज्ञों उसकी यह नियति कि डूब मरे जाकर सरयू के मंत्रपूत जल के कण, कुश की नोकों ने छिडके जिस के तल में!"उस संचित जल में समा गईं थीं आकरआवेश-रोष से पाँव पटकता चला गया था रावण, स्वाहा की और स्वधा की दो परिणतियाँ अति स्वस्थ भाव से स्थिर हो कर बैठी थीं, भावी युग के संचालन की स्थितियाँमाथे पर हाथ धरे मन्दोदरि बैठ गई चिन्तित-मन!
आँधीघबराई-सा रावण यज्ञ ध्वंस कर बोला, सी रही सोचती क्या उपचार करूँ मैं?परम दुखी सीता के मन को कैसे शान्त करूँ मैं?"अब नहीं कहीं भी ऋषियोंत्रिजटे, कुशल तुम्हारी, तुमने जो मेरे लिए कुचक्र रचा है, परिणाम भोगना तुम्हे पडेगा भारीजा कर स्नेह-भाव से थोड़ा धीर बँधाओ! शत्रुता हमारी है अब तुम सबसे ही जिन सबने मिलकर यह षड्यंत्र रचाया”!उस घट अपने संरक्षण में ही ऋषि-रक्त भरा रावण नेले लो, उन सबको दंडित कर वह लंका आयाकुछ विश्वास दिलाओ! "
वह जल जो अनगिन आहुतियों का फल था, वरदान सिद्धि का धारणकर अविचल था,