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Kavita Kosh से
हवा में मक्खन-सा घोलती है
नींद-भरी आलस की भोर का
कुंज गदराया है
अभी अनजान मानो
नावें उछलती हैं लहरों में बादलों के
हलकी हलकी मगन मगन
बेमानी तानें-सी आप ही आप गुनगुनाता है
चुंबन की मीठी पुचकारियाँ
खिला रहीं कलियों को फूलों को हँसा रहीं
घाँसों को गुदगुदियों न्हिला रहीं
सुगंधियाँ
क्यों न उसाँसें भरे
धरती का हिया
धूप की चुस्कियाँ
पिये जाय, आँख मीच, सोनीली माटी
कन्-कन् जिये जाय
थप्-थप् केले के पातों पर हातों से
हाथ् दिये जाय
थप थप्...