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मेरा माज़ी / मीना कुमारी

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|रचनाकार=मीना कुमारी
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{{KKCatNazm}}[[category: नज़्म]]{{KKVID|v=W8ooL82Vwv4}}<poem>मेरा माज़ी<br>मेरी तन्हाई का ये अंधा शिगाफ़<br>ये के सांसों की तरह मेरे साथ चलता रहा<br>जो मेरी नब्ज़ की मानिन्द मेरे साथ जिया<br>जिसको आते हुए जाते हुए बेशुमार लम्हे<br>अपनी संगलाख़ उंगलियों से गहरा करते रहे, करते गये<br>किसी की ओक पा लेने को लहू बहता रहा<br>किसी को हम-नफ़स कहने की जुस्तुजू में रहा<br>कोई तो हो जो बेसाख़्ता इसको पहचाने<br>तड़प के पलटे, अचानक इसे पुकार उठे<br>मेरे हम-शाख़<br>मेरे हम-शाख़ मेरी उदासियों के हिस्सेदार<br>मेरे अधूरेपन के दोस्त<br>तमाम ज़ख्म जो तेरे हैं<br>मेरे दर्द तमाम<br>तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों से<br>तू एक मस्जिद-ए-वीरां है, मैं तेरी अज़ान<br>अज़ान जो अपनी ही वीरानगी से टकरा कर<br>थकी छुपी हुई बेवा ज़मीं के दामन पर<br>पढ़े नमाज़ ख़ुदा जाने किसको सिजदा करे<br><br>
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