भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
62 bytes removed,
04:28, 4 जुलाई 2013
|रचनाकार=कन्हैयालाल नंदन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,<br>जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँमैं परिंदा हूं उड़ने को पर मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।<br><br>
मैंने मांगी दुआएँजिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी, दुआएँ मिलीं<br>उन दुआओं का मुझपे असर चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।<br><br>
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ<br>लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,मुझको अहसास शानोशौकत का ऐसा घर सामाँ मगर चाहिए।<br><br>
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरीजब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,<br>चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, तो कहीं एक तो चश्मेतर* चाहिए।<br><br/poem>*- सार्थक
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,<br>शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।<br><br> जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,<br>तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।<br><br> *- सार्थक<br><br> **-नम आँख<br><br>