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{{KKRachna
|रचनाकार=इब्ने इंशा
|संग्रह=
}}
{{KKPrasiddhRachna}}
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी होहो। 
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी होहो। 
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी होहो। 
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी होहो।</poem>दीद=दर्शन
दीद=दर्शन; सेरी=तॄप्ति; सूद-ख़सारे=लाभ-हानि
(रचनाकाल : )</poem>सूद-ख़सारे=लाभ-हानि
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