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भारत महिमा / जयशंकर प्रसाद

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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
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<poem>हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार
उषा ने हँस अभिनंदन कियाजगे हम, और पहनाया हीरकलगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योम-हार ।। तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक
जगे हमविमल वाणी ने वीणा ली, लगे जगाने विश्व, लोक कमल कोमल कर में फैला फिर आलोक । सप्रीत सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
व्योमबचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत अरुण-तुम पुँज हुआ तब नाशकेतन लेकर निज हाथ, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।। वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत
विमल वाणी सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास पुरंदर ने वीणा लीपवि से है लिखा, कमल कोमल कर में सप्रीत । अस्थि-युग का मेरा इतिहास
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर सामसिंधु-संगीत ।। सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह
बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय धर्म का शीत । ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद
अरुण-केतन लेकर निज हाथविजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम भिक्षु होकर रहते सम्राट, वरुणदया दिखलाते घर-पथ में हम बढ़े अभीत ।। घर घूम
सुना है वह दधीचि यवन को दिया दया का त्यागदान, हमारी जातीयता का विकास । चीन को मिली धर्म की दृष्टि मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
पुरंदर ने पवि से है लिखाकिसी का हमने छीना नहीं, अस्थि-युग प्रकृति का मेरा इतिहास ।। रहा पालना यहीं हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं
सिंधुजातियों का उत्थान-सा विस्तृत और अथाहपतन, एक निर्वासित का उत्साह । आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर
दे रही अभी दिखाई भग्नचरित थे पूत, मग्न रत्नाकर भुजा में वह राह ।। शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।  हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।  विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।  भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।  यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।  मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।  किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।  हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।  जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।  खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।  चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।  हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।  हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।  वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।  वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।  वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।  जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।</poem>