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<poem>दिवसावसान का समय -<br>मेघमय आसमान से उतर रही है<br>वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,<br>धीरे, धीरे, धीरे,<br>तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,<br>मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,<br>किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।<br>हँसता है तो केवल तारा एक -<br>गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,<br>हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।<br>अलसता की-सी लता,<br>किंतु कोमलता की वह कली,<br>सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,<br>छाँह सी अम्बर-पथ से चली।<br>नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,<br>नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,<br>नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,<br>सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'<br>है गूँज रहा सब कहीं -<br><br>
व्योम मंडल में, जगतीतल में -<br>सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में -<br>सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में -<br>धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में -<br>उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में -<br>क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में -<br>सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'<br>है गूँज रहा सब कहीं -<br><br>
और क्या है? कुछ नहीं।<br>मदिरा की वह नदी बहाती आती,<br>थके हुए जीवों को वह सस्नेह,<br>प्याला एक पिलाती।<br>सुलाती उन्हें अंक पर अपने,<br>दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।<br>अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन,<br>कवि का बढ़ जाता अनुराग,<br>विरहाकुल कमनीय कंठ से,<br>आप निकल पड़ता तब एक विहाग!<br><br/poem>
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