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Kavita Kosh से
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में<br><br>
गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन,और मैं तुझे प्यार करता हूँ<br>
चिकनी हरी काई की रपटीली त्वचा का, यह ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ मैं<br>
ओह ! ये गोलक वक्ष के, ओह ! ये कहीं खोई-सी आँखें,<br>
ओह ! ये गुलाब तरुणाई के, ओह ! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास !<br>
ओ मेरी प्रिया-देह !मैं तेरी कृपा में बना रहूंगा<br>मेरी प्यास , मेरी अन्तहीन इच्छाएँ, ये बदलते हुए राजमार्ग !<br>
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,<br>
और यह असीम पीड़ा !<br>