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20:23, 24 अक्टूबर 2007 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी
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जब तेरा हुक्म मिला, तर्क मुहब्बत कर दी
दिल मगर स पे वो धडका, कि क़यामत कर दी|
तुझसे किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआनी ने बग़ावत कर दी|
मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तूने जाकर तो जुदाइ मेरी कि़स्मत कर दी|
मुझको दुश्मन के रादों पे भी प्यार आता है
तेरी ल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी|
पूछ बैठा हूं, मैं तुझसे तेरे कूचे का पता
तेरी हालत ने कैसी तेरी सूरत कर दी|