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{{KKRachna
|रचनाकार=अहमद नदीम काज़मी
}}

जब तेरा हुक्म मिला, तर्क मुहब्बत कर दी
दिल मगर स पे वो धडका, कि क़यामत कर दी|

तुझसे किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआनी ने बग़ावत कर दी|

मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तूने जाकर तो जुदाइ मेरी कि़स्मत कर दी|

मुझको दुश्मन के रादों पे भी प्यार आता है
तेरी ल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी|

पूछ बैठा हूं, मैं तुझसे तेरे कूचे का पता
तेरी हालत ने कैसी तेरी सूरत कर दी|
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