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15:12, 17 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सलमान अख़्तर
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<poem>
कहो तो आज बता दें तुम्हें हक़ीकत भी
के ज़िंदगी से रही है हमें मोहब्बत भी
तुम्हारा हुस्न तो है जान अपने रिश्ते की
बरत रहे हैं मगर हम ज़रा मुरव्वत भी
हज़ार चाहें मगर छूट ही नहीं सकती
बड़ी अजीब है ये मय-कशी की आदत भी
ये ज़िंदगी कोई महशर सही मगर यारो
सुकून-बख़्श है हम को यही क़यामत भी
उधार ले के ख़ुशी सारी उम्र जीते रहे
मगर ये इल्म था आएगी हम पे आफ़त भी
</poem>
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