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07:14, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='महशर' इनायती
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<poem>
मुसर्रतों की साअतों में इख़्तेसार कर लिया
हयात-ए-ग़म को हम ने और साज़-गार कर लिया
क़सम जब उस ने खाई हम ने ऐतबार कर लिया
ज़रा सी देर ज़िंदगी को ख़ुश-गवार कर लिया
वो आज चाहते थे बात कुछ बढ़े मगर वो हम
के बात बात पर सुकूत इख़्तियार कर लिया
कहो के महर-ए-सुब्ह-ताब आए हो के बे-नक़ाब
कोई बस आ चुका किसी का इंतिज़ार कर लिया
क़दम क़दम पे हादसे क़दम क़दम पे इंक़िलाब
हमें तो देखों ज़िंदगी का ऐतबार कर लिया
</poem>
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