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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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आज़ाद उस से हैं के बयाबाँ ही क्यूँ न हो
फाड़ेंगे जेब गोशा-ए-जिन्दाँ ही क्यूँ न हो

हो शुग़्ल कोई जी के बहलने के वास्ते
राहत-फ़ज़ा है नाला ओ अफ़्ग़ाँ ही क्यूँ न हो

सौदा-ए-जुल्फ़-ए-यार से बाज़ आएँगे न हम
मज्मू-ए-हवास-ए-परेशाँ ही क्यूँ न हो

एहसान-ए-तीर-ए-यार अदा हो सकेगा क्या
जान अपनी नज़र-ए-लज़्ज़त-ए-पैकाँ ही क्यूँ न हो

जीते रहेंगे वादा-ए-सब्र-आज़मा पे हम
उम्र अपनी मिस्ल-ए-वक़्त-ए-गुरेज़ाँ ही क्यूँ न हो

‘वहशत’ रूकें न हाथ सर-ए-हश्र देखना
उस फ़ितना-ख़ू का गोशा-ए-दामाँ ही क्यूँ न हो
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