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ज़ुल्मत-ए-शाम से भी नूर-ए-सहर पैदा कर
क़ल्ब शबनम का सितारों की नज़र पैदा कर

फिर किसी दामन-ए-रंगीं की तरफ़ आँख उठा
पहले अश्कों के लिए दीद-ए-तर पैदा कर

रह-ए-दुश्वार में कर मंज़िल-ए-आसमाँ की तलाश
उसी दीवार में हिम्मत है तो दर पैदा कर

मौसम-ए-गुल में तो आ जाती है काँटों पे बहार
बात तो जब है ख़िजाँ में गुल-ए-तर पैदा कर

सहन-ए-गुलशन न सही दश्त का आग़ोश सही
वहशत-ए-दिल के लिए कोई तो घर पैदा कर

बख़्श दे मुर्दा-ए-दिल को ग़म-ए-बे-दाद ‘फ़ना’
सीन-ए-संग में तूफ़ान-ए-शरर पैदा कर
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