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|रचनाकार=ख़ान-ए-आरज़ू सिराजुद्दीन अली
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<poem>
आता है सुब्ह उठ कर तेरी बराबरी को
क्या दिन लगे हैं देखो ख़ुर्शीद-ए-ख़ावरी को

दिल मारने का नुस्ख़ा पहुँचा है आशिक़ों तक
क्या कोई जानता है इस कीमिया-गरी को

उस तुंद-ख़ू सनम से मिलने लगा हूँ जब से
हर कोई जानता है मेरी दिलावरी को

अपनी फ़ुसूँ-गरी से अब हम तो हार बैठे
बाद-ए-सबा से ये कहना उस दिलरूबा परी को

अब ख़्वाब में हम उस की सूरत को हैं तरसते
ऐ आरज़ू हुआ क्या बख़्तों की यावरी को
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