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|रचनाकार=रति सक्सेना
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बरसों बरसों से
मेरे सीने के ठीक बीचोबीच
जड़ी थी एक घड़ी
एक से बारह के बीच में
वक्त को पकड़ कर
एक पाँव से घिसटती
दूसरी से सरपट दौड़ती
बरसों बरसों से<br>मेरे सीने मैं दौड़ती रही सुइयों के ठीक बीचोबीच<br>साथजड़ी थी एक घड़ी<br>रुक कर थमती रहीएक से बारह जिन्दगी के बीच में<br>साथवक्त को पकड़ दुआ कर<br>रही थी किएक पाँव से घिसटती<br>टूट जाएँ ये सुइयाँदूसरी से सरपट दौड़ती<br><br>बिखर जाए वक्तगुलाल सा, हथेली पर
मैं दौड़ती रही सुइयों के साथ<br>बरसो बरसो बाद अचकचा कर रुक कर थमती रही<br>गई घड़ीजिन्दगी के साथ<br>टिकटिकाहटों को समेटदुआ कर रही थी कि<br>मुँह लटका खड़ी हो गईटूट जाएँ ये सुइयाँ<br>बिखर जाए वक्त<br>के मकड़ जाल नेगुलाल सा, हथेली पर<br><br>लपेट लील लिया मुझे
बरसो बरसो बाद <br>चीख उठी मैंअचकचा कर रुक गई कहाँ है सुइयों की रस्सीकहाँ है मेरी घड़ी<br>टिकटिकाहटों को समेट<br>मुँह लटका खड़ी हो गई<br>वक्त के मकड़ जाल ने<br>लपेट लील लिया मुझे<br><br>
चीख उठी मैं<br>कहाँ है सुइयों की रस्सी<br>कहाँ है मेरी घड़ी<br><br> वक्त हँस पड़ा<br>
चल दिया मुझे छोड़
</poem>