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|रचनाकार=रति सक्सेना
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उसने सोचा
आड़ी पड़ी देह को
सीधा खड़ा कर दे
ठीक नब्बे डिग्री के कोण पर
छू ले आसमान को एड़ियाँ उचकाकर
वह उठी
बीस तीस सत्तर अस्सी कोण को पार कर
पहुँच गई नब्बे पर
तमाम कोशिशों का बावजूद
आधी दबी रही ज़मीन में
एक सौ अस्सी पर लेटी हुई
अगली कोशिश थी उसकी
सीधी रेख बनने की
किन्तु बनती-बिगड़ती रही वह
त्रिभुज-चतुर्भुज में
अब झाड़ दिए हैं उसने सारे कोने
बन रही है वृत दौड़ में शामिल होने को
वक़्त के विरोध में।
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