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|रचनाकार=राही मासूम रज़ा
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क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए।
क्‍या वो दिन हम भी दिन कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं जिनमें दिन भर जी घबराए<br>क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।<br><br>जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों इतने शोर में बैठे हैं<br>दिल से बातें करना है नामुमकिनजान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।<br><br>जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए।।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन<br>जाने क्‍या बातें करते हम भी हैं आपस बनवास में हमसाए लेकिन राम नहीं हैं राहीआए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।<br><br>
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही<br>
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।<br><br>
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
</poem>
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