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01:17, 6 सितम्बर 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=‘खावर’ जीलानी
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<poem>
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
तिरी तलाश में निकले हैं पा-बुरीदा सही
जहान-ए-शेर में मेरी कई रियासते हैं
मैं अपने शहर में ग़ुमनाम ओ ना-शुनीदा सही
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
ये आरज़ू का शजर है ख़िज़ाँ-रसीदा सही
इन्हीं बुझी हुई आँखों में ख़्वाब उतरेंगे
यक़ीं न छोड़ ये बीमार ओ शब-गुज़ीदा सही
दिलों को जोड़ने वाली ग़ज़ल सलामत है
तअल्लुक़ात हमारे भले कशीदा सही
</poem>