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|रचनाकार=ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
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मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़्याल मिरा
मगर उड़ाए लिए जा रहा है जाल मिरा

यक़ीन इतना नहीं मेरा जितना नब्ज़ का है
मिरी ज़बान से सुनता नहीं वो हाल मिरा

कमाल की वो इमारत मिरी हुई मिस्मार
खंडर की शक्ल में बाक़ी रहा ज़वाल मिरा

फ़ज़ा में झोंक दे आँधी के बाद पानी भी
उड़ाई ख़ाक तो अब ख़ुन भी उछार मिरा

ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
वही जवाब है उस का वही सवाल मिरा

मैं सर किए हुए बैठा हूँ इक नई चोटी
कुछ और फ़ासले से देख अब कमाल मिरा
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