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|रचनाकार=जलील आली
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<poem>
इक ऐसी अन-कही तहरीर करने जा रहा हूँ
हुनर को और भी गंभीर करने जा रहा हूँ

मेरे एहसास में बे-चैन जिस के ख़ाल-ओ-ख़द हैं
उसे हर आँख में तस्वीर करने जा रहा हूँ

मैं फ़रहाद-ए-मआनी तेशा-ए-हर्फ़-ओ-बयाँ से
सुख़नी की झील जू-ए-शीर करने जा रहा हूँ

दिलों के दरमियाँ रस्तों में कितने ख़म पड़े हैं
मैं उन को फिर से सीधा तीर करने जा रहा हूँ

वो जिस में बे-नवाओं के लहू की सुर्ख़ियाँ हैं
कुलाह-ए-शाह लीर-ओ-लीर करने जा रहा हूँ


मुझे ज़ंजीरना है अपने हिस्से का ज़माना
सो अपने आप को तस्ख़ीर करने जा रहा हूँ

सदा ताबीर-दर-ताबीर जो रक्खे सफ़र में
मैं वो ख़्वाब-ए-दीगर तामीर करने जा रहा हूँ
</poem>
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