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{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
}}
कोलाहल इतना मलिन<br>{{KKPustakदुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है<br>|चित्र=Bhavishay_ghat_raha_hai.jpgमन होता |नाम=सो तो है<br>सारा विषपान कर<br> |रचनाकार=[[कैलाश वाजपेयी]]चुप चला जाऊँ<br>ध्रुव एकान्त में <br>सही नहीं जाती<br>पृथ्वी|प्रकाशक=-भर मासूम बच्चों <br>माँओं की बेकल चीख़।<br>सारे के सारे रास्ते<br><br> सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे<br>रहा भूगोल<br>उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है<br>कल तक्षशिला आज पेशावर <br>इसके बाद भेद-ही-भेद<br>जड़ का शाखाओं से <br>दाहिनी भुजा का बायीं<br>कलाई से।<br><br> बीसवीं सदी के विशद<br>पटाक्षेप पर<br>देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार<br>पानी की <br>डूब रहे बड़े|वर्ष= -बड़े नाम<br>कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र <br>फँसा फड़फड़ा रहा-<br><br>|भाषा=हिन्दीअन्त हो रहा या शायद<br>|विषय=कविताएँपुनर्जन्म <br>पस्त पड़ी क्रान्ति का।<br><br> बीसवीं सदी के विशद मंच पर<br>खड़े जुनून भरे लोग|शैली=-<br>जिन नगरों में जन्मे थे<br>उन्हीं को जला रहे<br>एक ओर एक लाख मील चल <br>गिरता हुआ अनलपिण्ड <br>और <br>दूसरी तरफ़ बुलबुला<br>बुलबुला<br>इनकार करता है पानी <br>कहलाने से <br>बडा समझदार हो गया है बुलबुला।<br><br> असल में अनिबद्ध था विकल्प<br>विकल्प ही भविष्य था <br>भविष्य पर घट रहा है।<br>इस क्षणभंगुर संसार में <br>अमरौती की तलाश भी<br>जा छिपी राष्ट्रसंघ के<br>पुस्तकालय में <br>देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे <br><br> ज़िक्र जब आता वंशावलि का<br>हरिशचन्द्र की <br>पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव<br>शायद सभी को<br>अपना भुइँतला ज्ञात है।<br>बहारों की नगरी में नाद बेहद का<br>आकाश फट रहा<br>एक आँखों वाले संयन्त्र पर <br><br> देख रहे बच्चे<br>अपनी जन्मस्थली<br>बेपरदा हुई मनुष्यता<br>भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही <br>खुल रही पहेली दिन-ब-दिन<br>रहस्य <br>झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा <br>अपने पहचान|पृष्ठ=-पत्र का अभाव में <br>दरिद्रदेवता<br>पूछ रहा पता<br>हवालात का <br><br> जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की <br>अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में <br>फाँसी लगेगी...लगनी है<br>असल में यह अनुपस्थिति का मेला है<br>खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन <br>युवा युवतियों को बुला रहा<br>कि गर्भ की गर्दिश से बचने के <br>कितने नये ढंग अपना चुकी है<br>मरती शताब्दी <br><br> शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर<br>नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में <br>स्त्रियाँ<br>उभराने में वक्ष<br>किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले <br>इस देश में <br>कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं<br>कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं <br>न मछलियों का छुटकारा<br>अपनी दुर्गन्ध से <br>यों सारी उम्र रहीं पानी में।<br><br> कैसे मैं पी लूँ सारा विष<br>विलय से पहले<br>मुझ नगण्य के लिए यह <br>पेंचीदा सवाल है।<br>सब फेंके दे रही सभ्यता<br>धरती की कोख <br>दिन|ISBN=--दिन ख़ाली<br>पानी हवा आकाश<br>हरियाली धूप<br>धीरे|विविध=-धीरे<br>बढ़ती चली जा रही <br>कंगाली सब्र की <br>समझ कै़द <br>बड़बोले की कारा में <br><br> त्वरा के चक्कर में <br>सब इन्तजार हो गया है<br>काल को पछाड़कर <br>तेज़ रफ्तार से <br>सब-कुछ होते हुए<br>होना <br>बदल गया है<br>समृद्धि के अकाल में<br>अस्ति से परास्त <br>विभवग्रस्त आदमी<br>एक-एक कर <br>फेंककर <br>सारी सम्पदा<br>क्या पृथ्वी भी <br>फेंक देगा ?<br><br> मेरे समक्ष यह<br>संजीदा सवाल है<br>ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है <br>किसी अवधूत की<br>अविद्या-विद्यमान को ही़<br>शाश्वत मानना <br>ठीक है कि हस्ती<br>एक झूठा हंगामा है <br>हर प्रतीक्षा का<br>गुणनफल <br>सिराना चुक <br>जाना है।<br>तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे <br><br>}}
सब कुछ को रोक देना <br>जरूरी है<br>भूलकर अपनी अवस्था।<br>चिड़ियों से फूलों से <br>पेड़ से हवा से<br>कहना चाहिए<br>भीतर से बाहर का तालमेल <br>नाव नदी संयोग<br> के बावजूद<br>बना अगर * [[भविष्य घट रहा न्यूनतम भी<br>बिसरा सरगम<br>किसी ताल में <br>होकर निबद्ध फिर<br>आएगा।<br>पृथ्वी बच जाएगी<br>मैं रहूँ नहीं रहूँ<br>फ़र्क क्या।है. / कैलाश वाजपेयी]]