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|संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावां / मदन गोपाल लढ़ा
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<Poempoem
कांई ठाह कींकर
इती खेचळ पछै ई
कांई ठाह कद
म्हारैं आंगणै
बटाऊ बावड़ जावै !
डागळै कागला
अळसीड़ै रा ढ़िगळा लाग्योड़ा है
अर बटाऊ
आंवतो ई हुवैला !  </Poempoem>
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