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रूंख / चैनसिंह शेखावत

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<poem>बाळपणै मांय लगायोड़ै
एक रूंख नैं जद देखूं
जोबन रै आं दिनां
रूंख मुळकै
लागै
ज्यूं टाबर ठाम लेवै
आपरै बाप रा पग
जिद करै टोफी खातर।

काचा हर्या पानड़ां रो
न्हाण करै ओ रूंख
म्हारै सिर माथै
अचपळो टाबर ज्यूं
बाप रै बाळां फेरै आंगळी
घर्र-घर्र चलावै गाडी।

नैणां बंद कर्यां म्हैं
आंतरै तांई देखूं
एक टाबरियो एक बाप नैं
बाप होवण रो ऐसास करावै।</poem>
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