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<poem> सावन का क्या बहार है जब यार ही नहीं।
मवसम में लगी आग मददगार ही नहीं।

मवशमे बहार छा रहा बुलबुल कफस में है।
और मसत कबूतर का खरीददार ही नहीं।

टेसू कुसुम गुलाब ओ फूले है मालती
इन्साफ के बाजार में गुलजार ही नहीं।

अब तो महेन्दर क्या करूँ दिलदार ही नहीं।
वो प्यार भी देखा नहीं जहाँ खार ही नहीं।
</poem>
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